
श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश ने जब राजस्थान पत्रिका की नींव रखी तब ही उनके मन में यह भाव था कि अखबार ऐसा होना चाहिए जो तमाम तरह के प्रभावों और दबावों से मुक्त हो। वे ऐसा अखबार चाहते थे जिसकी एक अलग और स्वतंत्र पहचान हो। उनके कुलिश उपनाम का अर्थ है वज्र। वज्र की भांति दृढ़ता से ही उन्होंने पत्रकारिता धर्म का निर्वहन किया। पत्रिका की शुरुआत के पहले भी और इसके बाद भी जिस निर्भीकता से उन्होंने कलम चलाई वह आज भी लोगों के जेहन में है। वे न केवल निपुण पत्रकार थे बल्कि श्रेष्ठ कवि, प्रखर चिंतक, दार्शनिक व वेदों के ज्ञाता थे। कुलिश जी का जीवन संघर्ष, संकल्प और संरचना का उत्कृष्ट उदाहरण रहा। वे हमेशा सत्ता के निकट रहते हुए भी उससे दूर रहे। कुलिश जी ने 7 मार्च 1956 को जो पौधा रोपा वह आज भी उनके भावों के अनुरूप पाठकों के विश्वास को ही अपनी सबसे बड़ी ताकत मानता है। श्रद्धेय कुलिश जी की जयंती के मौके पर अखबार की भूमिका, पाठकों की ताकत और पत्रिका की रीति-नीति के साथ-साथ दूसरे मसलों पर कुलिश जी ने अपने आत्मकथ्य 'धाराप्रवाह' में जो कुछ कहा, उनके ही शब्दों में...
पत्रिका के बारे में...
राजस्थान पत्रिका में यह परम्परा रही है कि उसमें किसी विवाद के हर पहलू और दृष्टिकोण को स्थान दिया जाता है। पत्रिका की असली ताकत उसके पाठक हैं। जब तक देश में समाचार पत्र की स्वतंत्रता है, वह स्वतंत्र रूप से अपना काम करेगा। इस मूलभूत स्वतंत्रता की रक्षा करना राजस्थान पत्रिका अपना धर्म मानता है। जनभावना के साथ रहना अखबार का परम कर्तव्य है। प्रथम आवश्यकता है। अखबार के लिए पाठक ही सर्वेसर्वा है... पाठक ही सब कुछ है। 'पत्रिका' ने सत्ता पक्ष का साथ कभी नहीं दिया। उसने हमेशा जनता का साथ दिया है।
अखबार कागज की नाव -
अखबार कागज की नाव होता है। बहुत नाजुक होता है, और इसे गंभीर परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। इसके भीतर छोटा-सा भी छेद हो जाए तो नाव को ले डूबता है। अखबार के साथ किसी राजनीतिक व्यक्तित्व की निकटता से जनता के मन में उस अखबार के प्रति वैसा ही दृष्टिकोण बन जाया करता है, और पाठक खबरों का उसी दृष्टि से तौलना शुरू कर देते हैं। अखबार में खबरों के माध्यम से जलजला लाकर.. सनसनी पैदा करके... प्रसार बढ़ाना एक अलग पक्ष है... किसी व्यक्ति के विश्वास की रक्षा करना अलग पक्ष है। यदि इन दोनों पहलुओं की तुलना का प्रश्न उठे तो मैं हर परिस्थिति में विश्वास को प्रथम वरीयता देता हूं। अखबार का असली उद्देश्य यही है कि उसकी बातों का आम पाठक पर असर हो। जनता के मन में उसके प्रति आस्था हो।
पाठकों का विश्वास सर्वोपरि-
जिस तरह से किसी कम्पनी में शेयर होल्डर की कीमत होती है, राजनेता के लिए वोटर्स की होती है और शासक के लिए जनता की होती है। यही महत्व अखबार के लिए पाठक का होता है। पाठक हम पर विश्वास न करें... यह मैं किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता। ऊपर सत्ता में बैठे लोग नाराज हो जाएं तो हमें ग्राह्य है, उस स्थिति को तो हम बाद में अनुकूल बना लेंगे। पर पाठक का अविश्वास घातक है। अखबार के लिए पाठक से बढ़कर कोई शक्ति नहीं है।
पत्रिका संस्थान से बढ़कर एक परिवार -
मेरी दृष्टि में पत्रिका एक व्यावसायिक संस्थान से बढ़कर परिवार ज्यादा रहा है। आज पत्रिका जो कुछ भी है उसके रोम-रोम में, रेशे-रेशे में कई लोगों का अथक परिश्रम, प्रयास, कर्म व साधना निहित है। इसीलिए पत्रिका को कभी मैंने अपनी निजी सम्पत्ति या थाती नहीं माना।
खुद को सुधारने की कोशिश -
पत्रिका मेरी परिकल्पना का मूर्त रूप है और आज तक इसमें कोई अन्तर नहीं आया है, जब हमें लगता है कि लोग हमें गलत महसूस करने लगे हैं तो हम अपने-आपको सुधारने का प्रयास करते हैं, दृष्टिकोण सुधारने की कोशिश करते हैं।
यों हुआ राजस्थान पत्रिका का नामकरण -
7 मार्च 1956 को जब राजस्थान पत्रिका की नींव रखी गई थी तब राज्य में जितने भी अखबार निकलते थे उन्हें या तो राजनेता खुद निकालते थे या फिर उन्हें छापने वाले लोगों पर सत्ताधारी दल की विचारधारा हावी रहती थी। ऐसे में पत्रकारिता के पुरोधा श्रद्धेय कुलिश जी को लगा कि कोई ऐसा अखबार होना चाहिए जो न किसी के प्रभाव में काम करे और न किसी के दबाव में। ऐसे माहौल में उन्होंने राजस्थान पत्रिका की नींव रखी।
'य एषु सुप्तेषु जागर्ति' बना ध्येय वाक्य-
मैं... अमृत नाहटा और कोमल कोठारी... तीनों साथ- साथ रहते थे। घर बैठे-बैठे मेरे मन में अखबार का नाम क्लिक हुआ 'राजस्थान पत्रिका'। यह नाम सबको पसंद आया। मेरे एक मित्र थे एल.आर.पेंढारकर। वे व्यंग्य चित्र और कैरिकेचर बनाते थे। उनसे टाइटल बनाने के लिए कहा। जिसे हम लोग आजकल मोनोग्राम या लोगो कहते हैं। श्रीगोपाल पुरोहितजी के पिताजी रामगोपालजी आचार्य ने एक श्लोक सुझाया था 'य एषु सुप्तेषु जागर्ति' यानी 'सोतों में जागते रहने वाला'। पेंढारकरजी ने एक मशाल और अगल-बगल में गेहूं की दो बालें लगाकर गोला-सा बना उसके ऊपर यह श्लोक भी लिख दिया। यह टाइटल मेरी कल्पनाओं के अनुरूप था। देवीशंकर जी तिवाड़ी को भी दिखाया तो उन्होंने भी पसंद किया। इस तरह सहजता से ही 'राजस्थान पत्रिका' का नामकरण हो गया।
'न्यूज पेपर विद द सोल'-
कुलिश जी ने पत्रकारिता के माध्यम से ज्ञान के विस्तार और चेतना के विकास की राह दिखाई। पत्रिका आज भी लगातार उनके बताए रास्ते पर चलकर निर्भीक व निष्पक्ष पत्रकारिता की मिसाल बना हुआ है। पत्रकारिता धर्म के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव पत्रिका की पहचान रही है। कलम के इन्हीं पुरुषार्थी कर्मों में भविष्य के संकेत भी निहित होते हैं। सम्प्रेषण माध्यम के रूप पत्रिका ने हमेशा पाठकों को सबसे पहले रखा है। यही वजह है कि पाठकों के मन में यह विश्वास है कि पत्रिका में कोई बात छपी है तो सच ही है। पाठकों का भरोसा सदैव मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। यही वजह है कि पाठक पत्रिका की एक आवाज पर सामाजिक सरोकारों में भागीदारी के लिए जुट जाते हैं। पाठकों का यही प्रेम आत्मा बन कर पत्रिका संस्थान में सदैव निहित है। इसीलिए तो पत्रिका को 'न्यूज पेपर विद द सोल' कहा जाता है।
source https://www.patrika.com/opinion/karpoor-chandra-kulish-jayanti-special-6755454/