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गुरुवार, 6 मई 2021

शब्दों का दरवेश: शब्द-रंग में बहती आनंद धारा

विनय उपाध्याय

हिंदुस्तान के जिस बंग प्रदेश में इन दिनों रक्त-रंजित राजनीति का घृणित अध्याय लिखा जा रहा है, यकीन करना कठिन है कि इसी सरजमीं पर मानवता को पुकारते हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन की स्थापना की थी। प्रकृति, प्रेम और करुणा के छंद गाने वाला भारतीय संस्कृति का यह गायक अपने अद्वितीय जीवन और सृजन की महान प्रेरणाओं के बीच आज भी जीवित है। सात मई टैगोर का अवतरण दिवस है।

सियासी हुक्मरानों के लिए टैगोर की सांस्कृतिक विरासत के मायने क्या और कितने कीमती हैं, नहीं मालूम, लेकिन जिस आनंद धारा को इस जगत में बहते रहने की कामना टैगोर अपनी 'गीतांजलि' में करते हैं, निश्चय ही सारी दुनिया का कंठ इन अमृत बूंदों का प्यासा है। रवीन्द्रनाथ का सारा सृजन थकी, हारी और निराश दुनिया के लिए उम्मीद और हौसले की हुंकार है। इसीलिए वे 'एकला चलो रे' का मंत्र देते हुए दूर कहीं ठिठकी किसी मंजिल की ओर चल पडऩे का आग्रह करते हैं। अस्सी बरस के आस-पास फैले अपने जीवन में टैगोर ने साहित्य और ललित कलाओं की तमाम विधाओं में चमत्कारी ढंग से प्रवेश किया। भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बने। उनकी देशभक्ति का राग स्वाधीनता के नए सूर्योदय में भारत का मंगल गान है। यहां की धरती, प्रकृति, ज्ञान, स्मृति और सभ्यता को आत्मसात करता विश्व मानवता के कल्याण और उत्कर्ष की अभिलाषा है। भारत और बांग्लादेश के लिए स्वीकृत राष्ट्रगान में इसी गौरव की गूंज है।

बांग्ला में लिखी उनकी कृति 'गीतांजलि' को 1913 में साहित्य के सर्वोच्च नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। संसार में आधुनिक भारतीय साहित्य का मान बढ़ा। उन्होंने हजारों कविताएं लिखीं। कहानी, उपन्यास, नाटक लिखे। रवींद्र संगीत की रचना की, लेकिन दिलचस्प यह कि जीवन के अंतिम दस सालों में टैगोर ने शब्दों के संसार से निकलकर रंग-रेखाओं की खामोशियों में अपनी अभिव्यक्ति की ठौर तलाशी। उन्होंने कहा- 'मैं अपने भरे ह्रदय के साथ/ अनंत गहराई में छलांग लगा देता हूं/ अपना सर्वस्व खोता हुआ।' ..और खाली कैनवस पर फिर किसी महान कविता को रंग-रेखाओं में पा लेने का इसरार उनके भीतर आखिरी सांस तक बना रहा।

लेखक कला साहित्य समीक्षक और टैगोर विश्वकला एवं संस्कृति केंद्र के निदेशक हैं)



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