विनय उपाध्याय
महामारी का अंधड़। मृत्यु का दमन चक्र। भय और भटकाव के बीच भरोसे की तलाश। वक्त के आईने में झांक रही जिन्दगी का इन दिनों यही तो चेहरा है। इतिहास गवाह है कि जब-जब भी जीवन और प्रकृति की लय टूटी, हाहाकार मचा, तब-तब महाविनाश के बाद नवनिर्माण की कहानियां भी मनुष्य की महाविजय की तस्दीक करती हैं। इस दौरान 'कामायनी' पढ़ते हुए दो समयों की समानांतर यात्रा से गुजरने का अनुभव हुआ। घटनाओं के रूप-स्वरूप भले ही जुदा हों, पर त्रासदी का दंश और उससे जुड़े कई सवाल मिलते-जुलते हैं। कामायनी की रचना करीब पिचासी बरस पहले जयशंकर प्रसाद ने की थी। हिंदी जगत में यह एक ऐसे महाकाव्य का सृजन था, जिसमें भारतीय संस्कृति और मनुष्यता का गौरवगान है। एक ऐसी वैश्विक आवाज, जो समरसता, शांति और सौहार्द की सुगंध बिखेरती उम्मीद के नए पंख पसारती है।
साहित्य प्रेमी जानते ही हैं कि कामायनी की आत्मा में मनुष्यता की चिंता है। एक ओर मूल्यों का पतन, जीवन में पसरती निराशा, तो इसी गुबार के बीच चमकती उम्मीद फिर नए नीड़ के निर्माण की प्रेरणा बन जाती है। देव संस्कृति के वैभव और विलासिता ने जब मर्यादा की सीमाएं लांघ दीं, तो परमशक्ति का क्रोध प्रलय बनकर प्रकट हुआ। देवों का नाश हुआ। एक ही प्रतिनिधि बचे मनुष्यता के प्रथम पिता - मनु, जो कामायनी यानी स्त्री पात्र श्रद्धा के सहचर बनकर तमाम संशयों, उलझनों और सवालों के समाधान तलाशते हुए फिर नए जीवन का सपना देखते हैं।
कामायनी का कथानक ज्ञान, कर्म और इच्छा के बीच समरसता की स्थापना है। जब प्रसाद कहते हैं कि 'प्रकृति के यौवन का शृंगार, कभी न करेंगे बासी फूलÓ तो आशय स्पष्ट है कि नई सोच, नई संकल्पना से ही जीवन की मूरत गढ़ी जा सकती है। यहां आत्ममंथन जीवन का नया उजाला देता है। भारत ही नहीं, दुनिया के दीगर मुल्कों के साहित्य प्रेमियों के लिए कामायनी इस दारुण दौर में विचार का संबल देने वाली पुस्तक साबित हो सकती है। निश्चय ही कामायनी का पुनर्पाठ मन की बेचैनी को शांत करता है। उसका छंद यकीन देता है - 'दु:ख की पिछली रजनी बीच, विकसता सुख का नवल प्रभात।'
(लेखक कला साहित्य समीक्षक हैं व टैगोर विश्वकला एवं संस्कृति केंद्र के निदेशक हैं)
source https://www.patrika.com/opinion/mantra-of-world-harmony-6843149/