कान्हड़दास धाम रामद्वारा में चल रही भागवत कथा में बुधवार को संत गोपालरामजी महाराज ने भगवान विष्णु के वामन अवतार, समुद्र मंथन, भक्त प्रहलाद के प्रसंग सुनाए। संत ने कहा कि इस समुद्र मंथन यानि हमारा मन ही मंदराचल पर्वत है, संयम की डोर वासुकि नाग है, मंथन ही मनन (ध्यान) है। जिसमें कभी अच्छे भाव आते हैं तो कभी बुरे भाव आते हैं।
अच्छे भाव ही देवता है, जिनसे मन जुड़ने का प्रयास करता है और बुरे भाव असुर हैं जिनसे मन हटने का प्रयास करता है। संत ने कहा कि जब मंथन (मनन) होता है तब विषय रूपी विष एवं अनेक प्रलोभन आते रहते हैं। अमृत तो अंत में निकलता है । जो साधक विषय एवं प्रलोभनों को पार करते हुए निरंतर मंथन अर्थात मनन करता रहता है उसे ही अमृत की प्राप्ति होती है।
समुद्र मंथन में पहले पहल जहर निकला वैसे ही भक्ति के मार्ग में जीव को पहले उपहास, निंदा रूपी जहर की ही प्राप्ति होती है। जैसे मीरा बाई को हुई परंतु अंत में अमृत भी उन्हीं को मिला। जिन्हें नारायण पर भरोसा था। संसार की चिंता किए बगैर की गई भक्ति ही जीव को अमृत प्रदान करती है। संत ने कहा कि भगवान वामन ने अपने विराट स्वरूप से एक पग में बलि का राज्य नाप लिया, एक पैर से स्वर्ग का राज नाप लिया। बलि के पास कुछ भी नहीं बचा। तब भगवान ने कहा तीसरा पग कहां रखूं। बलि ने कहा मेरे मस्तक पर रख दीजिए। जैसे ही भगवान ने उसके ऊपर पग धरा राजा बलि पाताल में चले गए। भगवान ने बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया।
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