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रविवार, 28 मार्च 2021

लोकतंत्र की गाड़ी

- गुलाब कोठारी

केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी देश के अति महत्वाकांक्षी मंत्रियों में से एक हैं। परिवहन क्षेत्र के उनके अनुभव महाराष्ट्र के परिवहन मंत्री काल से ही स्पष्ट होते रहे हैं। उस काल के अन्य प्रदेशों के परिवहन मंत्रियों से भी आज तक संबंध बनाए हुए हैं। भाजपा अध्यक्ष काल में भी थे। उनके सभी निर्णय स्व: चिन्तन पर ही आधारित हैं। देश के बारे में, संस्कृति और आर्थिक जीवन की अवधारणाओं के बारे में वे कितना समझते हैं यह उनके निर्णयों से स्पष्ट झलकता है।

सड़कों तथा वाहनों को लेकर उनके सभी निर्णयों को एक साथ रखकर देखा जाए तब चित्र स्पष्ट हो जाएगा कि वे किस तरह और कितना शीघ्र, परिवहन क्षेत्र को अमरीका और लंदन के समकक्ष खड़ा कर देने को आतुर हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों को भी भारत के बाजार में उतारने की जल्दबाजी विदेशों की ही नकल है। भले ही आधा देश भूखा रहता है। पीने को सबके पास शुद्ध पानी नहीं है। शिक्षा का औसत यूरोप के क्लर्कों जैसा भी नहीं है। जो शिक्षित हैं, उनके लिए भी भूखे मरना अनिवार्य है। तब प्रश्न यह है कि देश को सड़कों का नया जाल चाहिए या पेट भरने को रोटी? सड़कों की आवश्यकता और अनावश्यकता कौन तय करता है? क्या ऐसे अंग्रेज गांव में रहे हैं? क्या इनको अनुमान है कि कितने गांव और खेत उजड़ते हैं हर सड़क के साथ? अब तो छह लेन से कम कोई सड़क बनती ही नहीं। कितने घर उजड़ते हैं हर सड़क के साथ, कौन जानता है? क्या मुआवजा देना उन परिवारों को पुन: स्थापित कर सकता है? देखा जाए तो बेरोजगार होकर मजदूर बन जाता है परिवार। सर्वे करवाकर पुरानी सड़कों के प्रभाव का आकलन कौन कराता है? जनता के धन से जनता को बेघर करना ही विकास हो गया। वाह! फैलते शहरों और सड़कों के जाल ने देश का स्वरूप क्या से क्या कर दिया। जनता की सुन ली तो सरकार ही क्या हुई!
अनेक उदाहरण ऐसे भी मिलेंगे, जहां नई सड़कें बनती जाती हैं, पुरानी टूटती रहती हंै। उस जमीन का किसी के लिए उपयोग ही नहीं। राज्य सरकारें भी अपने हिस्से की आहुति डालती रहती हैं। सारे परिवहन विभाग घाटे में चलते हैं। माफिया निजी बसें चला रहा है। टिकिट की आय? न टोल पूरी करता है, न ही नए-नए कर्ज। सारा कार्य ठेकों पर होने लगा, ताकि कमीशन तो बना रहे। रख-रखाव भी ठेकेदार करे। फिर विभाग के वेतन-भत्ते अलग से जनता के सिर क्यों?

नितिन गडकरी जी को चिन्ता है कि जयपुर से दिल्ली दो घण्टे में कैसे पहुंचे। दिल्ली से भी दो घण्टे में जयपुर आ गए। किसकी जरूरत है- आम आदमी की तो नहीं। जिनकी है, वे हवाई यात्रा कर लेंगे। लोकलुभावन नारे ही साहब की पहचान है। इस हाथ दिया, उस हाथ वापिस नहीं लिया तो सरकार ही क्या हुई! एक समय था जब सड़कें विभाग बनाता था, रख-रखाव विभाग करता था। तब लगता था कि हमारे टैक्स के पैसे का सदुपयोग होता था। आज राजस्व भी गया, भ्रष्टाचार माफिया सरकारों में घुस गए। ऊपर से टोल टैक्स और। अपने स्वतंत्र देश में आप स्वतंत्र विचरण नहीं कर सकते।

अभी कुछ ही दिन पहले माननीय परिवहन मंत्री ने बड़ी घोषणा कर डाली। जनता की चिरप्रतिक्षित इच्छा पूरी कर डाली। 'शीघ्र ही देश के सारे टोल-बूथ हटा दिए जाएंगे।' यह हुआ चमत्कार। इसी के लिए जाने जाते हैं, हमारे मंत्री महोदय। उन्होंने साथ में यह भी कह दिया कि 'भविष्य में टोल-बूथ का स्थान जीपीएस लेगा। आपकी यात्रा के किलोमीटर के अनुपात में टोल स्वत: ही कटता चला जाएगा।" इसका क्या अर्थ हुआ? सरकार ने पहले ही टोल बूथों पर फास्ट टैग अनिवार्य किया हुआ है। इसे कौन देखेगा कि फास्ट टैग का अन्य उपयोग नहीं हो रहा। पिछले दिनों हमारे एक साथी एनसीआर के एक मॉल में गए तो पार्किंग का शुल्क सीधे फास्ट टैग से कट गया। ताजा आंकड़ों के मुताबिक 93 फीसदी गाडिय़ां टोल फास्ट टैग से ही चुका रहीं है। मार्च 2020 तक के आंकड़ों के अनुसार देश में 566 टोल बूथ हैं। सरकार कहती है कि जीपीएस की व्यवस्था से लोगों को बड़ी सुविधा हो जाएगी।

आने वाले दिनों में यह भी हो सकता है मेरा वाहन माह में दो सौ किलोमीटर चलेगा, तो उतना, और दो हजार किलोमीटर चलेगा तो उसके अनुसार टोल कटेगा। मैं प्रतिदिन कार्यालय जाता हूं। आना-जाना चालीस किलोमीटर, दूध-सब्जी के लिए बीस किलोमीटर, गृहस्थी के कार्य, बच्चों को स्कूल लाना-ले जाना जैसे इतने कार्य हैं कि इनका योग ही दो-तीन हजार किलोमीटर हो जाएगा। इस दूरी का टोल जीपीएस स्वत: काट लेगा? मुझे यदि बाहर नहीं भी जाना पड़ा तो मेरा टोल तो कटता रहेगा? जीपीएस में यह सिस्टम तो होता नहीं कि टोल रोड पर ही ऑन-ऑफ होगा। फिर फास्ट टैग और जीपीएस जैसे माध्यम में लोगों के निजी जीवन में ताक-झांक होगी सो अलग। दुनिया में डाटा के दुरुपयोग के कई ऐसे उदाहरण हैं। सवाल यह है कि लोगों के वाहनों पर लगने वाली चिप क्या सिर्फ टोल नाके पर शुल्क देने भर के लिए काम में लाई जाएगी? क्या इस तकनीक के खतरे नहीं हैं? क्या नागरिकों की निजता पर इसमें किसी तरह के संकट का आसार है? तब एक वाहन धारक का क्या होगा- इसका उत्तर भी गडकरी जी को ही स्पष्ट करना चाहिए। इटली जैसे कुछ देशों में ऐसा सिस्टम है, किन्तु वहां भुखमरी नहीं है।

फैसलों की कुछ और बानगी। वाहनों के लिए यूनिफॉर्म टैक्स सिस्टम की। एक अप्रेल से जो व्यवस्था लागू हो रही है उसमें कॉमर्शियल टैक्सी व पैसेंजर वाहनों से पूरे देश में एक तरह का टैक्स लेंगे। फिर चाहे वह देशभर में गाड़ी ले जाए या नहीं। यह टैक्स 15 हजार से 3 लाख रुपए तक सालाना होगा। लेकिन एक बार गाड़ी मालिक टैक्स दे देगा तो इसकी वसूली सीधे यात्रियों से शुरू हो जाएगी।

पन्द्रह साल पुराने पेट्रोल चलित व दस साल पुराने डीजल वाले कॉमर्शियल वाहनों की गिनती अब स्क्रेप में आ जाएगी। कई राज्यों ने इस पर आपत्ति भी जताई है। पहले ऐसे वाहनों को मालिक दूसरे शहरों में चला लेते थे या बेच देते थे जहां रोक नहीं है। स्क्रेप पॉलिसी लागू होने के बाद अब ऐसे वाहन देश में कहीं भी नहीं बिक सकेंगे। इससे प्रभावित गरीब टैक्सी चालक भी होगा तो बड़ी बस का मालिक भी। सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने वाहनों के नवीनीकरण की फीस बढ़ाने के प्रस्ताव वाला ड्राफ्ट भी जारी किया है। इसे एक अक्टूबर से लागू करना प्रस्तावित है जिसके तहत वाहनों के नवीनीकरण के समय फीस अब 5 गुना तक बढ़ जाएगी।

कुल मिलाकर सड़क की लागत हमारी, ठेकेदार के रख-रखाव का खर्चा हमारा, फिर भी हर कदम का टैक्स भी हमें ही देना है। तब क्या यह मोदी जी के सपनों का देश बनाया जा रहा है? पेट्रोल तो बिना छिड़के ही आग लगा रहा है। रोटी काट कर पेट्रोल और टोल देना विकास की अनिवार्यता हो गई। यह तो एक ही विभाग की बात है। जनता पर बन्दूक तो हर विभाग ने तान रखी है।

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source https://www.patrika.com/opinion/democracy-and-new-transportation-policy-6769436/