विनय उपाध्याय
आज विश्व नृत्य दिवस है। विडम्बना ही है कि कला के रंगमंच पर सन्नाटा है और प्रेक्षागृह सूने हैं। भावाभिनय और लयकारी के सुन्दर रूपक रचती नृत्य की महफिलों से गुलजार रहने वाले वे सुहाने मंजर अब गुजरे वक्त की इबारत हैं। लेकिन जीवन की रंगभूमि पर ताल और काल के महादेव का जो तांडव चल रहा है, उसकी प्रचंड लीला को समझना कठिन है। नटराज का यह रौद्र रूप, मंगल का उद्घोष करे, इस 'दिवस विशेष' पर यही सामूहिक कामना।
हिंदी के अग्रणी छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद अपने महाकाव्य 'कामायनी' के 'चिंता सर्ग' में महाप्रलय का वर्णन करते हुए कहते हैं - 'पंचभूत का यह तांडवमय, नृत्य हो रहा था कब का!' लेकिन, इसी प्रवाह में वे एक छंद जोड़ते हैं- 'दु:ख की पिछली रजनी बीच, विकसता सुख का नवल प्रभात।' शापित कालखंड को मथकर नया विहान इस धरती पर उतरे। महाकाल आनंद तांडव करे। जीवन की आनंदित लय-ताल पर उमंग भरी थिरकनों का उत्सव जाग उठे। विश्व नृत्य दिवस की परिकल्पना में धन्यता का यही भाव है। सुख, सौहार्द और उत्कर्ष की परस्परता में जीवन की सुन्दर छवियों का उद्घाटन ही नृत्य है। वह मन की उमंगों की भाषा है। लय की कोई ललित कविता। देह, मन और हृदय की समग्रता में विराट के प्रति सबसे सच्ची प्रार्थना। जिज्ञासा, प्रयोग, नवाचार और मनोरंजन के बदलते आग्रहों के चलते नृत्य की दुनिया ने भी अपना कलात्मक दामन बहुत पसार लिया।
भारत में नृत्य की अनगिनत शैलियां हैं। जनजातीय और लोक समुदायों से लेकर शास्त्र सम्मत नृत्यों की परंपरा का परचम थामने वाली बिरादरी तक रूप-रंग भरती इतनी छटाएं हैं कि बस, निहाल ही हुआ जा सकता है। दिलचस्प यह कि भारतीय नृत्य की संरचना का आधार जीवन के प्रति गहरी आस्था, विश्वास और समर्पण है। यहां हर नृत्य किसी अनुष्ठान का अनुकरण है। वह लोकाचार की लालित्यमयी अभिव्यक्ति है। वह 'नटराज' और 'नटवर' जैसे नृत्य देवताओं की पवित्र स्मृतियों में अपने वजूद की मनोरम कल्पनाओं की उड़ान भरता है। प्यार की पैड़ी पर परमात्मा की प्रार्थना बनकर वह थिरकता रहा है। ... मृत्युंजय के लिए सारे नृत्य काश आज ऐसी ही महान प्रार्थना बन जाएं।
(लेखक कला साहित्य समीक्षक, टैगोर विश्वकला एवं संस्कृति केंद्र के निदेशक हैं)
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